Monday, September 14, 2015

हिन्दी दिवस कि पीड़ा

हिन्दी दिवस की पीड़ा

हर वर्ष 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। शुरुवात हिन्दी दिवस से हुयी थी। फिर हिन्दी सप्ताह हुआ, फिर हिन्दी पखवाड़ा हो गया। अब तो कही कहीं हिन्दी चेतना मास भी मनाया जाता है। अब इसके उदघाटन और अंत के समारोह में बोलने की भी परंपरा है सो बोलना भी पड़ता है। हर बार यही सोचता हूँ की इस बार कौन सा नया झूठ बोलूँ। खुशी दिखाऊ कि हम 67 साल बाद भी अपनी भाषा के लिए एक दिवस मना रहें हैं या सच बोलू कि धीरे धीरे हम अपनी भारतीय भाषाओ को बोली बनाते जा रहे हैं। हमारी अगली पीढ़ी  हिन्दी या अन्य भाषाएँ सिर्फ बोलने के लिए इस्तेमाल करती हैं। पढ़ने, सोचने या लिखने के लिए नहीं। जो एसा करते हैं उन्हे हम गँवार कहते हैं। हमारे airports के किताब दुकान पर एक भी भारतीय भाषाओं का न तो अखबार होता है न एक भी किताब। चाहे वो दिल्ली हो या मुंबई । यहाँ तक कि दिल्ली में जिसकी राजभाषा  हिन्दी है तथा एक हिंदीभाषी शहर है वहाँ के कनाट प्लेस कि किताबों कि दुकानों में एक भी हिन्दी कि किताब नहीं मिलेगी। सबसे ज्यादा दुख तो दिल्ली के हिन्दी अखबारों को देख कर होता है। नवभारत टाइम्स का कोई पन्ना उठा कर देख लीजिये। आधे से ज्यादा शब्द अँग्रेजी के देवनागरी लिपि में लिखे होते हैं। अब इस माहोल में हिन्दी दिवस/पखवाड़ा /मास पर खुशी वयक्त करूँ या दुख वयक्त करूँ। 30  वर्ष पहले लिखी कविता को पुनः उद्धृत कर अपने दिल को संतोष दे लेता हूँ। सुधी जनो के लिए प्रस्तुत है।

मैं हिन्दी का एक बड़ा सेवक हूँ
हर वर्ष हिन्दी दिवस में भाग लेता हूँ
दूरदर्शन एवं अखबारो में फोटो आती है
क्योंकि
मेरे बच्चे उस स्कूल में पढ़ते हैं जहां
हिन्दी में बोलने पर सर मुंडवा दिया जाता है
हाथी को हाथी कहने पर बच्चा थप्पड़ खाता है
उसे बताया  जाता है यह हाथी नहीं एलिफ़ेंट है
मेरी बीबी बड़े फख्र से सहेलियों को बताती है
यू सी ये बच्चे तो गाली भी अँग्रेजी में देते हैं
मैंने तो बेटे के लिए वैवाहिक विज्ञापन भी दिया है
वांटेड ए कान्वेंट educated गर्ल
ताकि मेरी अगली पीढ़ी पर कहीं
हिन्दी की  छाया भी न पड़ जाय
वो रोये भी तो अँग्रेजी में रोये
वैसे मेरा नारा है
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है और इसे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है
पर इस हम में मैं तो सिर्फ नारे तक ही शामील हूँ
इसीलिए तो आप हिन्दी बोलने वाले नीचे बैठे हैं
और मैं मंच पर
हिन्दी दिवस का भाषण कर्ता हूँ

(यह कविता 1984 में लिखी गई थी जब केरल के एक स्कूल में एक बच्चे का सर मुंडवा दिया गया क्योंकि उसने स्कूल में अपनी मातृभाषा में बात की  थी। इसी घटना से उद्वेलित हो मैं यह कविता लिखी थी )

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