जाति
सम्मेलन: राजनीति का एक काला अध्याय
जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म की एक ऐसी कुरीति थी जिसे समाज ने पूरी कोशिश की मिटाने की। काफी हद तक यह खत्म भी हो गई है। केवल अभिभावकों द्वारा तय की गई शादियो में जात की कोई अहमियत रह गई है। पर हमारे राजनीतिज्ञ इसे छोडना नहीं चाहते हैं। हर इलैक्शन से पहले वे जातियों का जोड़ तोड़ शुरू कर देते हैं। बिहार इलैक्शन से पहले फिर वही प्रक्रिया शुरू हो गई है। पिछले महीने मैं पटना में था। हर तरफ विभिन्न जाति सम्मेलनों के पोस्टर लगे हुए थे। कल एक कायस्थ सम्मेलन भी हो गया। इसी तरह 2009 में लखनऊ विभिन्न जतियों के सम्मेलनों के पोस्टर देख कर बहुत क्षोभ हुआ था। उस क्षोभ को वयक्त करने के लिए मैं एक कविता लिख डाली थी। प्रस्तुत है:
कल शाम मैं एक बूढ़े वयक्ति से
टकरा गया
चेहरे पर कुछ उदासी कुछ हैरानी के
भाव लिए
एक किताब हाथ मे लिए कुछ खोज रहा
था
मैंने पूछा
बाबा यह मोती किताब ले कर कहाँ घूम
रहे हो
यह तो इंटरनेट का जमाना है
गूगल करो ढूंढ लो, क्यों इस कित्ब के पीछे पड़े हो
बाबा बोले
मैं खोज रहा हूँ इस किताब में अपनी
गलतियाँ
किस सफे पर लिख दिया था
जनतंत्र को जातितंत्र में बदलने
का तरीका
मैंने तो आरक्षण की वकालत की थी
उस स्वप्निल समाज के लिए जहां कोई
जात न हो
पर ये साथ साल बाद कोई भारत सम्मेलन
नहीं करता
ये बड़े बड़े होर्डिंग बताते हैं
ब्राह्मण सम्मेलन, वैश्य सम्मेलन, यादव सभा जाट सभा
इसलिए मेरे भाई मुझे बख्शो
मुझे अपनी गलतियाँ ढूँढने दो
अपने सपनों की टूटी चिरकिया चुनने
दो
जनतंत्र तो जातितंत्र में बदलने
के खिलाफ
इस संविधान में लिखे सबदों को ढूँढने
दो।
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